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|रचनाकार=शील
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|संग्रह=
}}
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<poem>
(निराला के प्रति)
जूझे तुम !
महाकाय संस्कृति के वाहक, समराँगन खेत रहा ।
असल रहस्यों के — अभेद्य-भेद खुले !
भेद मिले भावों के, युग के व्यक्तित्त्व तुले ।
जूझे तुम !
लुटा गए, अपराजेय पौरुष के —
मुक्त कोष रुद्र तोष ।
अक्षय आह्लाद भरे, अक्षर आलोक खिले ।
छन्दों की छाँव तले, वंशी के स्वर निकले ।
वाणी के दीप जले
जूझे तुम प्रवर !
सदा पदतल नत अनय रहा,
पागल - उन्मादी, तुम्हें किसने क्या नहीं कहा ।
शब्दों के सारथी, तुम्हें किसने क्या नहीं कहा ।
शब्दों के सारथी, सहास गरल पीते रहे,
लोक-व्यथा जीते रहे ।
पीढ़ी - दर - पीढ़ी अब — पूछेंगे लोग - बाग,
गाएँगे मेघराग ।
जूझे तुम !
</poem>
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(निराला के प्रति)
जूझे तुम !
महाकाय संस्कृति के वाहक, समराँगन खेत रहा ।
असल रहस्यों के — अभेद्य-भेद खुले !
भेद मिले भावों के, युग के व्यक्तित्त्व तुले ।
जूझे तुम !
लुटा गए, अपराजेय पौरुष के —
मुक्त कोष रुद्र तोष ।
अक्षय आह्लाद भरे, अक्षर आलोक खिले ।
छन्दों की छाँव तले, वंशी के स्वर निकले ।
वाणी के दीप जले
जूझे तुम प्रवर !
सदा पदतल नत अनय रहा,
पागल - उन्मादी, तुम्हें किसने क्या नहीं कहा ।
शब्दों के सारथी, तुम्हें किसने क्या नहीं कहा ।
शब्दों के सारथी, सहास गरल पीते रहे,
लोक-व्यथा जीते रहे ।
पीढ़ी - दर - पीढ़ी अब — पूछेंगे लोग - बाग,
गाएँगे मेघराग ।
जूझे तुम !
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