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<poem>
नायक के मंच पर उदय होने के पूर्व
धुंध भरती है वहां
कुछ समय के लिए बत्ती कर दी जाती है गुल
लिबास और रोशनी के इंतजामात
हमारे दिलो दिमाग पर छा जाते हैं

वह प्रसन्न रहता है
सहायता के लिए तत्पर भी, अगर सार्वजनिक हो प्रकाश उसका
उसकी त्वचा इतनी चिकनी
कि फिसल जाती है कोई भी बात

मौसम में मौसम बदल जाता है
आवाज़ों में आवाजें बोलती हैं
पानी में पैदा की जाती है आग
कभी कुछ नहीं करता, कभी कुछ नहीं किया जिसने
वो जादू कर रहा है

जन्म के समय एक जीवन में प्रवेश करता है
फिर प्रवेश करता जाता है कितने जीवन में
वो तलाशता है अपने लिए सहानूभूति
जिसे कमीज़ या कुर्ते की तरह पहनकर
गिरा देता है नीचे
अगला पड़ाव आने के पूर्व

कल तक जिस आंदोलन का विरोध करता था
नेतृत्व कर रहा है आज उसका
इसकी व्याख्याएं उसकी होती हैं तथ्य और तर्क उसके
संबंधों की पूजा और विसर्जन के कठिन गणित को बनाता है बेहद आसान
भाषा पर होता है उसका इतना अधिकार
कि जहां भी हो जाता है खड़ा
वही बन जाता है
धरती का केन्द्र बिन्दु

बाजार में बनाए जा रहे हैं मुखौटे
ईमानदार के दयालु के समाजसेवी परोपकारी के
मुखौटे मचल रहे हैं अपने चेहरों से मिलने के लिए बेताब
चहरे प्रसन्न हैं कि उन्हें मिलने ही वाला है मनचाहा रुप
हर मौके के अलग अलग, योजना और मक़सद के अनुसार

मैं याद करना चाहता हूं वह शक्लो सूरत
किसी चाय की दुकान पर या किसी गोष्ठी में
मुकम्मल नहीं हो पाती कोई भी तस्बीर
बस कुछ रेखाएं एक दूसरे को काटती हुईं
बदल जाता है जिनका रंग
थोड़ी थोड़ी देर बाद

हमारी आस्था और गफलत के बीच के रास्ते से निकलते है वे
भरते हुए अपना रंग
वे बढ़ते जाते हैं आगे हवा में हाथ हिलाते अपनी मंजिल की ओर
सम्मोहित हम देखते रह जाते हैं उनके कौतुक
</poem>