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<poem>
बूद गहरा है तेज़-रौ है हयात
ख़ुद में गहराइयाँ समेटे हूँ
किस बुलन्दी को अब चढ़ा जाये KHud me.n gahraa.iyaa.n sameTe huu.n Kis bulandii ko ab chaDHaa jaaye जाए
यूँ तो ख़ल्वत है बे-नियाज़ी है
शोर हर सम्त क्यूँ बढ़ा जाये Yuu.n to KHalvat hai be-niyaazii hai Shor har samt kyuu.n baDHaa jaaye जाए
रौशनी तो ख़ला में भटके है
और आलम ये फैलता जाये Raushnii to KHalaa me.n bhaTke hai Aur ‘aalam ye phailtaa jaaye जाए
हम हैं नाज़िर हमीं नज़ारा हैं
दरमियाँ गर ख़ुदा न आ जाये
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शब्दार्थ :