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प्रेमिका-कंठ में पड़ी मालती की माला, दिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है।
बस, जिधर उठाओ दृष्टि, उधर रेशम केवल, रेशम पर से क्षण भर को आंख आँख न हटती है,
सच कहा एक भाई ने, दिल्ली में तन पर रेशम से रुखड़ी चीज न कोई सटती है।
दिल्ली वाले गा रहे बैठ निश्चिंत मगन रेशमी महल में गीत खुरदुरी खादी के।
वेतनभोगिनी, विलासमयी यह देवपुरी, ऊंघती ऊँघती कल्पनाओं से जिस का नाता है,
जिसको इसकी चिन्ता का भी अवकाश नहीं, खाते हैं जो वह अन्न कौन उपजाता है।
लगता है, कोई स्वर्ग खमंडल से उड़कर, मदिरा में माता हुआ भूमि पर आया है।
ये, जो फूलों के चीरों में चमचमा रहीं, मधुमुखी इन्द्रजाया की सहचरियां सहचरियाँ होंगी,ये, जो यौवन की धूम मचाये मचाए फिरती हैं, भूतल पर भटकी हुई इन्द्रपरियां इन्द्रपरियाँ होंगी।
उभरे गुलाब से घटकर कोई फूल नहीं, नीचे कोई सौंदर्य न कसी जवानी से,
सिद्धार्थ देख रम्यता रोज ही फिर आते, मन में कुत्सा का भाव नहीं, पर, जगता है,
भारत धूलों से भरा, आंसुओं आँसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में।
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में।
रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालों, तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये रोए हो?बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में, तुम भी क्या घर भर पेट बांधकर सोये सोए हो?
असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में, कया क्या जल मे में बह जाते देखा है?क्या खाएंगेखाएँगे? यह सोच निराशा से पागल, बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?
देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को, जिन की आभा पर धूल अभी तक छायी छाई है?रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक रेशम क्या? साड़ी सही नहीं चढ़ पायी पाई है।
पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?
जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?
चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गांव गाँव के जलने से, दिल्ली में तो रोटियां रोटियाँ नहीं कम होती हैं।धुलता न अश्रु-बुंदों बूँदों से आंखों आँखों से काजल, गालों पर की धूलियां धूलियाँ नहीं नम होती हैं।
जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें, आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी?
चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर, दिल्ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में।
है विकल देश सारा अभाव के तापों से, दिल्ली सुख से सोयी सोई है नरम रजाई में।
क्या कुटिल व्यंग्य! दीनता वेदना से अधीर, आशा से जिनका नाम रात-दिन जपती है,
दिल्ली के वे देवता रोज कहते जाते, `कुछ और धरो धीरज, किस्मत अब छपती है।´
किस्मतें रोज छप रहीं, मगर जलधार कहांकहाँ? प्यासी हरियाली सूख रही है खेतों में,
निर्धन का धन पी रहे लोभ के प्रेत छिपे, पानी विलीन होता जाता है रेतों में।
तो होश करो, दिल्ली के देवो, होश करो, सब दिन तो यह मोहिनी न चलनेवाली है,
होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसेंसाँसें, मिट्टी फिर कोई आग उगलनेवाली है।
हों रहीं खड़ी सेनाएं सेनाएँ फिर काली-काली मेंघों-से उभरे हुए नये गजराजों की,फिर नये गरुड़ उड़ने को पांखें पाँखें तोल रहे, फिर झपट झेलनी होगी नूतन बाजों की।
वृद्धता भले बंध बँध रहे रेशमी धागों से, साबित इनको, पर, नहीं जवानी छोड़ेगी,सिके आगे झुक गये सिद्धियों के स्वामी, उस जादू को कुछ नयी आंधियां आँधियाँ तोड़ेंगी।
ऐसा टूटेगा मोह, एक दिन के भीतर, इस राग-रंग की पूरी बर्बादी होगी,
जब तक न देश के घर-घर में रेशम होगा, तब तक दिल्ली के भी तन पर खादी होगी।