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<poem>
मैं पहली पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूँ राज सिपाहियों से,
पंक्ति काट देता हूँ ।

मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूँ और डर जाता हूँ गुरिल्ले बाग़ियों से,
पंक्ति काट देता हूँ ।

मैंने अपनी जान की ख़ातिर
अपनी हज़ारों पंक्तियों का
ऐसे ही क़त्ल किया है,

उन पंक्तियों की रूहें
अक्सर मेरे चारों ओर मण्डराती रहती हैं
और मुझसे कहती हैं —
कवि साहब !
तुम कवि हो या कविता के क़ातिल ?

सुने मुन्सिफ़ बड़े इनसाफ़ के हत्यारे,
बहुत से मज़हब के रखवारे,
खुद मज़हब की पवित्र आत्मा को
क़त्ल करते भी सुने थे,

सिर्फ़ यह सुनना ही बाक़ी था
और सुन भी लिया
कि हमारे वक़्त में ख़ौफ़ के मारे
कवि भी हो गए कविता के हत्यारे ।
</poem>
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