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फूलों की खेती / राजेश अरोड़ा

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<poem>
ध्वस्त होती इमारतों से उतर
बहुत सी कहानियां बंद हैं
किताबों के पृष्ठों पर
रात के किसी पहर में
पलटता है कोई पृष्ठ
उन किताबों के
फिर फिर जीता है
उन दर्दों को
जो मनुष्य की आत्मा पर
तेजाब बन बरसे थे
वर्षों पहले

दीवारों पर बने गोली के निशानों के
चारों तरफ खींचता है एक गोला
आँखें भिगो याद करता है
उन जीवनों को
जो जी सकते थे कुछ ओर अभी
बहुत भयानक है यात्रा
उन काल खंडों की

लेकिन फिर मिल गयी तुम
जिसने कहा
आओ भरे दे
दीवार पर उभरे उन छेदो को
और फिर से सींचे
बारूद से बंजर हुई उस भूमि को
जिन पर कभी होती थी
फूलों की खेती
क्योंकि जीवन कभी रुकता नहीं
और बंदूकों ने कभी
प्यार के गीत नहीं गाये है।
</poem>
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