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{{KKRachna
|रचनाकार=महेश कुमार केशरी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
मँझली काकी और सब
कामों के तरह ही करतीं
हैं, नहाने का काम और
बैठ जातीं हैं, शीशे के सामने
चीरने अपनी माँग
और अपनी माँग को भर
लेतीं हैं, भखरा सेंदुर से,
भक भक ।
और
फिर, बड़े ही ग़मक के साथ
लगाती हैं, लिलार पर बड़ी
सी टिकुली ।
एक, बार अम्मा नहाने के
बाद, बैठ गईं थीं तुंरत
खाने पर,
लेकिन, तभी
डांँटा था मंझली काकी
ने अम्मा को
छोटकी , तुम तो
बड़ी, ढीठ हो, जब, तक
पति ज़िंदा है तो बिना सेंदुर
लगाये, नहीं खाना चाहिए
कभी खाना ।
बड़ा ही अशगुन होता है,
तब, से अम्मा फिर, कभी
बिना सेंदुर लगाये नहीं
खाती थीं, खाना ।
मँझले काका, काकी से
लड़कर सालों पहले
काकी, को छोड़कर कहीं दूर
निकल गये पच्छिम ।
बिना काकी को कुछ बताये
गाँव, वाले कहतें
हैं कि काकी करिया
भूत हैं, ।इसलिए
भी अब कभी नहीं
लौटेंगे काका ।
और कि काका ने
पच्छिम में रख रखा
है एक रखनी और ।
और, बना लिया है, उन्होंने
वहीं अपना घर ।
काकी पच्छिम दिशा में
देखकर करतीं हैं
कंघी और चोटी और भरतीं
हैं, अपनी माँग में सेंदुर
इस विश्वास के साथ
कि काका एक दिन ज़रूर ।
लौटकर आयेंगे
</poem>
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|रचनाकार=महेश कुमार केशरी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
मँझली काकी और सब
कामों के तरह ही करतीं
हैं, नहाने का काम और
बैठ जातीं हैं, शीशे के सामने
चीरने अपनी माँग
और अपनी माँग को भर
लेतीं हैं, भखरा सेंदुर से,
भक भक ।
और
फिर, बड़े ही ग़मक के साथ
लगाती हैं, लिलार पर बड़ी
सी टिकुली ।
एक, बार अम्मा नहाने के
बाद, बैठ गईं थीं तुंरत
खाने पर,
लेकिन, तभी
डांँटा था मंझली काकी
ने अम्मा को
छोटकी , तुम तो
बड़ी, ढीठ हो, जब, तक
पति ज़िंदा है तो बिना सेंदुर
लगाये, नहीं खाना चाहिए
कभी खाना ।
बड़ा ही अशगुन होता है,
तब, से अम्मा फिर, कभी
बिना सेंदुर लगाये नहीं
खाती थीं, खाना ।
मँझले काका, काकी से
लड़कर सालों पहले
काकी, को छोड़कर कहीं दूर
निकल गये पच्छिम ।
बिना काकी को कुछ बताये
गाँव, वाले कहतें
हैं कि काकी करिया
भूत हैं, ।इसलिए
भी अब कभी नहीं
लौटेंगे काका ।
और कि काका ने
पच्छिम में रख रखा
है एक रखनी और ।
और, बना लिया है, उन्होंने
वहीं अपना घर ।
काकी पच्छिम दिशा में
देखकर करतीं हैं
कंघी और चोटी और भरतीं
हैं, अपनी माँग में सेंदुर
इस विश्वास के साथ
कि काका एक दिन ज़रूर ।
लौटकर आयेंगे
</poem>