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<poem>
पाँच दिनों से दीपक लेकर
बैठा रघुवा
सोच रहा इस बार
न दीपक बिक पायेंगे

ज्योति-पर्व का उत्सव
चीनी बल्ब मनाते
अब न छतों पर हम मिट्टी का
दीप जलाते

रघुवा जैसे कितने ही
मुँह की खायेंगे

मुन्ना को फुलझड़ी-पटाखे
कैसे देगा
कैसे मुन्नी का घरकुण्डा भी
सँवरेगा

क्या आँखों में ही ये सपने
मर जायेंगे

कहाँ ग़रीबों के घर में
होती दीवाली
रमा नहीं बसती,
बसती केवल कंगाली

क्या बच्चे फिर
रोते-रोते सो जायेंगे
</poem>
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