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|रचनाकार=राहुल शिवाय
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
कितना समझा रामायण को,
क्या अपनाया है
‘मरा-मरा’ कहते अधरों पर
‘राम’ न आया है
स्वर्ण-हिरण का
दिखना क्या है
कब इसको हम समझ सके ?
मन की सच्चाई
बतलाते
माँ शबरी के बेर थके
‘रामराज’ को
क्यों लंका का वैभव भाया है ?
हुआ दशहरा
रावण फूँका
पर दिखता बदलाव नहीं
सत्य पाश में
बँधा पड़ा है
हनुमानों में भाव नहीं
सौमित्रों में घर-भेदी का
रूप समाया है
नल-नीलों की
फौज खड़ी है
पुल लेकिन हर बार गिरे
अपनी-अपनी
नैया लेकर
राम नाम से लोग तिरे
मुँह में राम बगल में छूरी
जग की माया है।
</poem>
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कितना समझा रामायण को,
क्या अपनाया है
‘मरा-मरा’ कहते अधरों पर
‘राम’ न आया है
स्वर्ण-हिरण का
दिखना क्या है
कब इसको हम समझ सके ?
मन की सच्चाई
बतलाते
माँ शबरी के बेर थके
‘रामराज’ को
क्यों लंका का वैभव भाया है ?
हुआ दशहरा
रावण फूँका
पर दिखता बदलाव नहीं
सत्य पाश में
बँधा पड़ा है
हनुमानों में भाव नहीं
सौमित्रों में घर-भेदी का
रूप समाया है
नल-नीलों की
फौज खड़ी है
पुल लेकिन हर बार गिरे
अपनी-अपनी
नैया लेकर
राम नाम से लोग तिरे
मुँह में राम बगल में छूरी
जग की माया है।
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