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फूल / राहुल शिवाय

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<poem>
बड़े दिनों पर
गमले में
इक फूल खिला है
सोच रहा हूँ
तोड़ूँ या ऐसे रहने दूँ

मोहक है
लेकिन छूने में डर लगता है
कहीं छुवन से
बिखर न जाएँ ये पंखुड़ियाँ
कहीं एक भय
इसके भीतर भी तो होगा
जैसे डरती हैं
लड़कों से आम लड़कियाँ

सोच रहा हूँ
बैठूँ, सुनूँ
इसे मैं मन से
जो भी कहना है
केवल इसको कहने दूँ

अभी सुबह थी कली
बहुत सकुचाई-सी थी
लेकिन अब
इसमें है एक नया आकर्षण
यह आभास नया होगा
इसकी ख़ातिर भी
खिली धूप से
बहुत मिले होंगे प्रेमिल क्षण

इसकी
सुंदरता पर
क्यों अधिकार जताऊँ ?
कैसे इसके
सुंदर मन को मैं ढहने दूँ ?
</poem>
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