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<poem>
वर्ष के इन तीन
दृश्यों में नदी
आँख से टपकी
कभी काँधे लदी

1.
ज्यों निकलकर
गोद से बाहर चली
पारदर्शी थी, लगी शीशे जड़ी
था गले में हार
किरणों से बँधा
जुड़ रही थी हर नये तट पर कड़ी

ज्यों जगी हो नींद से
कोई सदी

2.
पग हुए थिर
मन विषादों से भरा
दूर तक मन में घुला अवसाद था
नयन के काजल
बहे थे गाल तक
मूक अधरों पर मुखर संवाद था
चाहती थी जानना
नेकी-बदी

3.

देह में बादल
समाने वह लगी
वह नदी थी याकि हाहाकार थी
चाहती थी
बाँध का बलिदान वो
रुद्र-तांडव के लिए तैयार थी

केश खोले थी खड़ी
ज्यों द्रोपदी।
</poem>
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