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जलधारा के श्वेत सोते
लाएँगे कब कहाँ से बादल
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'''ब्रज अनुवादः रश्मि विभा त्रिपाठी'''
ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा
मेहा की बूँदनि लै
सियराई के घरौंदनि लै
कुचति घाम कौ अनुभव बिसराइबे
कारी घनघोर दिसनि सहराइबे
ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा
रेसम कौ सौ ओढ़ैं अँचरा
जु पै अनछुयौ भयौ मलमल
संझा बिरिया गमकति सपुने नाई
घुमड़ि घुमड़ि अरु आरि करत
ल्यावैंगे कबुक अरु काहिं बदरा
रूखनि की सरसरावति पातिनि पै
रूपे की चमकति बुँदियाँ बगराइ
अपुने अल्हर आँगु कौं टिघराइ
जल ल्यावैंगे कबुक अरु काहिं बदरा
कभऊँ कभऊँ तौ तरसाइ जावत
मोरे हिय कौं चोली पच्छी सौ
भींजे परस की कल्पना लै
मोरे हिय की कल्पना कौं साकार करि
ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा
काऊ रूपसी की कारी अलकन नाई
कोऊ नैननि के सुघर अंजन नाई
अरु भूरी पुतरिन के कजरारे आभास नाई
भू खण्डन की लीली परबत चोटिनि ऊपर
जलधारा के सेत सोता
ल्यावैंगे कबुक किततैं बदरा।
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