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|रचनाकार=गीता त्रिपाठी
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<poem>
रंगशाला के ऊपरी पैरापिट में खड़ी होकर
देख रही हूँ क्रिकेट मैच, और
सोच रही हूँ –

इस अल्पविकसित देश में
कहाँ से आ गईं ये चियर गर्ल्स?
और कहाँ है इनका आदिवासी भूगोल?
हैरान हूँ, इनकी हरकतों से!

पीच तक पहुँचने की अनुमति नहीं है इन्हें, थोड़ी-सी जगह दी गई है
हाथ और पैर चलाने को,
मैदान के भीतर न जाने के लिए कहा गया है
और अंदर जाने की हैसियत रखते भी डरती हैं ये।

खनक रही हैं अब भी इनके हाथों में
कुछ दर्जन बेड़ियाँ;
इन्हें क्रिकेट की बॉल से डर लगता है, और
तय कर दी हुई जगह से निकलते भी डरती हैं ये।
मैनिक्योर करवाया गया है
और ये
ज़्यादा ही नाज़ुक,
ज़्यादा ही कमजोर समझती हैं
अपने हाथों को।

क्या मार्क्स के सिद्धांत पर न अटे हुए
उत्तरमार्क्सवाद के अंगवस्त्र भर हैं ये
या पूंजीवाद का कोई दूसरा चेहरा है?
किसको पता होगा,
इनका श्रम ख़रीदा जा रहा है या सौंदर्य?
नियति बिक रही है या कला?

भूख के वैश्विक अर्थ में
लोगों की अतृप्ति को बढ़ाती हैं चियर गर्ल्स;
आम दर्शकों के बीच
इनकी उपयोगिता क्या होगी?
खिलाड़ियों के लिए इनकी आवश्यकता कितनी होगी?
यह उत्तरऔपनिवेशिक संस्कृति में
किसको पता होगा कि
चियर गर्ल्स का वाद क्या है?
और इनका अपवाद कौन है?

हर चौके और छक्के के साथ उछल रही हैं
नये रूप के ये पुराने सबाल्टन;
लेकिन, कहीं भी पहुँची नहीं हैं।
सम्पूर्ण शक्ति के साथ चिल्ला रही हैं
मगर, कहाँ तक पहुँचती होगी आवाज़ें इनकी?

रंगशाला के बाहर दूर सड़कों पर
उछल रहे हैं जुलूस, और
खुद को इन्हीं के प्रतिनिधि घोषित कर
दहाड़ लगा रहे हैं, झुंड झुंड आवाज़ों के लश्कर।

देख रही हूँ
रंगशाला के ऊपरी पैरापिट पर खड़ी होकर;
और, हैरान हूँ इनकी हरकतों से।
०००

</poem>
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