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सुषुप्तीमाजीही नेणिवेचा। अभिमान घेतला असे साचा।
अभाव नव्हेचि कर्तृत्वाचा। लीनत्वें जरी॥१॥जरी॥१०१॥
उस्थान होतांच मी देह स्फुरे। म्यां अमुक केलें करीन सारें।
ऐसी अभिमानें जे हुंबरें। तेचि वासना॥२॥वासना॥१०२॥
सुषुप्तींत मात्र गुप्त होती। नेणीव गोचर राहे वृत्ति।
तेथील आठव घेऊन येती। स्फूर्ति उत्थान कालीं॥३॥कालीं॥१०३॥
तेथें अभाव जरी असतां। तरी उत्थानीं प्राप्त न होतां।
तस्मात् वासनारूपें अहंता। इचा सुषुप्तींत अभाव नाहीं॥४॥नाहीं॥१०४॥
हे असो सुषुप्तीची कथा। परी मृत्युकाळीं हानी नोहे सर्वथा।
सर्वही घेऊन बैसली माथां॥५॥माथां॥१०५॥
अनंत जन्मींचें केले जेवीं घोकिलें जन्मवरी।
न म्हणतां न विसरे तिळभरी। तेवीं वासनेमाजीं सामग्री।
अनंत जन्मींची असे॥६॥असे॥१०६॥
स्वरूपाहून वेगळी पडली। तधींपासून जीं जी कर्में केलीं।
तीं तीं माथां घेऊन बसली। तया नांव संचित॥७॥संचित॥१०७॥
जोंवरी ज्ञान नोहे प्राप्त। तों काळ हें न जळे संचित।
भोगणेंचि लागे अकस्मात। जें विभागा जे क्षणीं॥८॥क्षणीं॥१०८॥
एका देहीं शत योनींचें। कर्म केलें पापपुण्याचें।
तितुकें एकदांचि भोगा नवचे। एकेक भोगावें लागे॥९॥लागे॥१०९॥
शतांतील नव्याण्णव रहाती एक योनीसी एक घेऊन येती।
तेथेंही शत योनींची कर्में होतीं त्यांतीलही एक भोगासी॥१०॥ भोगासी॥११०॥
ये ऐसें अनंत जन्मींचें सांचलें। भोगा येऊन जें जें उरलें।
पुढे निश्चय करी ते बुद्धि। ऐसे दोन प्रकार जाले आधीं।
यांत जाणतेपणा जो त्रिशुद्धी। आला असे॥२४॥असे॥१२४॥
याचि नांवे ज्ञानशक्ति। भोक्ता सत्त्वगुणात्मक वृत्ती।
याचेही प्रकार पांच होती। व्यापारभेदें॥२५॥व्यापारभेदें॥१२५॥
श्रोत्रेंद्रियासी येऊनी। ऐकूं लागे शब्दालागुनी।
तयासी श्रोत्र बोलिजे वचनीं। द्वार निर्गमाचें॥२६॥निर्गमाचें॥१२६॥
त्वचाद्वारें स्पर्श घेणें। तयासी त्वगिंद्रिय म्हणणें।
चक्षुद्वारां जया पहाणें। तोचि चक्षु॥२७॥चक्षु॥१२७॥
जिव्हेंद्रियें रस घेणें। सुगंध निवडिजे घ्राणें।
एवं पांचही बहिःकरणें। मन बुद्धीचीं॥२८॥बुद्धीचीं॥१२८॥
आंतील इंद्रिय अंतःकरण। ज्ञानेंद्रिया नाम बहिःकरण।
एवं सातही जालीं लक्षणें। वृत्तिरूप ज्ञानाचीं॥२९॥ज्ञानाचीं॥१२९॥
स्फुर्तींत जाणीव जे होती। तिचे प्रकार बोलिले असती।
जाणीव मन बुद्धीकडे गेली। नुसती जडता जे उरली।
ते नाडीद्वारा फिरों लागली। तोचि प्राण॥३१॥प्राण॥१३१॥
व्यापारभेदें तोचि प्राण। पंचधा जाल संपूर्ण।
व्यान समान उदान प्राण। अपान पांचवा॥३२॥पांचवा॥१३२॥
अधो वाहे तो अपान। ऊर्ध्व वाहे तोचि प्राण।
उभयांची ग्रंथी तो समान। नाभिस्थानीं॥३३॥नाभिस्थानीं॥१३३॥
कंठी उदान रहातसे। व्यान सर्वांगीं विलसे।
या पंचप्राणांच्या सहवासें। कर्मेंद्रियां चळण॥३४॥चळण॥१३४॥
वाचा पाणी आणि पाद। चवथें उपस्थ पांचवें गुद।
एवं हीं कर्मेंद्रियें प्रसिद्ध। क्रियारूप प्राणा ऐसीं॥३५॥ऐसीं॥१३५॥
पाणी पाद उपस्थ गुद। ही चार तों कर्मेंद्रिय प्रसिद्ध।
परी वाणीमाजी द्विविध। ज्ञानक्रिया असे॥३६॥असे॥१३६॥
वैखरी जें शुद्ध बोलणें। हें तों क्रियारूप होणें।
मध्यमेमाजीं असती लक्षणें। ज्ञान क्रिया दोन्ही॥३७॥दोन्ही॥१३७॥
परा आणि दुजी पश्यंती। ह्या दोन्ही ज्ञानरूप असती।
तेथें क्रियेची समाप्ती। असे सहसा॥३८॥सहसा॥१३८॥
एवं मन बुद्धि ज्ञानेंद्रिय। पंचप्राण कर्मेंद्रिय।
हा सत्रा तत्त्वांचा समुदाय। लिंगदेह बोलिजे॥३९॥बोलिजे॥१३९॥
इतुकीं सत्रा तत्त्वें बोलिलीं। ही सर्व वासनेचीं विभागलीं।
भूतांचे जे गुण तीन। तेच द्रव्य शक्ति क्रिया ज्ञान।
द्रव्य शक्ति जो तमोगुण। तींच विषय भूतें॥४१॥भूतें॥१४१॥
आतां क्रिया ज्ञान दोन्ही शक्ती। भूतांपासून केवीं होती।
हेच लिंगदेहाची उत्पत्ती। अपंचीकृत बोलिजे॥४२॥बोलिजे॥१४२॥
गुण भूतें कालवलीं। जे अष्टधा बोलिजे पाहिलीं।
तेचि सत्रा तत्त्वें प्रसवली। ईक्षणें ईशाचे॥४३॥ईशाचे॥१४३॥
आकाशाचा सत्त्व गुण। श्रोत्रेंद्रिय जालें निर्माण।
त्वगिंद्रिय होय उत्पन्न। वायु सत्त्वांशाचें॥४४॥सत्त्वांशाचें॥१४४॥
चक्षु तेज सत्त्वांशाचें। जिव्हेंद्रिय तें आप सत्त्वाचें।
घ्राण तें पृथ्वी सत्त्वांशाचें। ज्ञानेंद्रियें पांच ऐसीं॥४५॥ऐसीं॥१४५॥
पांचांपासून पांच वेगळाले। जाले तें असाधारण कार्य बोलिलें।
आतां साधारण कार्य उभवलें। भूत सत्त्वांशाचें॥४६॥सत्त्वांशाचें॥१४६॥
पांचांचे येकदांचि काढिलें। सत्त्वांशें जें कां द्रव्य निघालें।
तेंचि अंतःकरण विभागलें। दों प्रकारें॥४७॥प्रकारें॥१४७॥
मन बुद्धि प्रकार दोन। व्यापारभेदें अभिधान।
एवं ज्ञानशक्तीचें सप्तधा लक्षण। भूत सत्त्वांशाचें॥४८॥सत्त्वांशाचें॥१४८॥
आतां भूतरजांशाची उत्पत्ती। जाली असे ते बोलिजेती।
तेही साधारण असाधारण असती। शक्ति क्रियात्मक॥४९॥क्रियात्मक॥१४९॥
आकाश रजांशाची वाचा। पाणी वायु रजांशाचा।
पाद तो तेज रजाचा। उपस्थ आप रजाचें॥१५०॥
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