लगता है, आजकल मैं
अक्सर एक साया ढोकर चलता हूँ।
जिस तरह पहाडियोँ पहाड़ों के अन्तर्तरङ्ग अंतरतरंग समझने कोधिरे धिरे धीरे-धीरे चारों ओर चक्कर लगाते हैं काली घटाएँ,उसी तरह कई आकृतियों में चक्कर लगाते हैं औरों के दिल
मेरे चारों तरफ।
अपने ही दिल को ढोकर चलता हूँ।
औरों के दिल के बोझ तले दब -दब कर
आजकल मुझे खुद की अस्मिता से ज्यादा
किसी और ही का जीवन जिया सा लगने लगा है।
कहते हैं
बहुत से लोग तुझ पे पर नजर लगाये हुए हैँहैं, तोतुम अपरिचित आँखों के बाढ पे बाढ़ पर बहा रहा होते हो।
कहते हैं
सभी के दिलोँ दिलों को ले चलते हो, तोतुम वक्त के पुराने बस्तियाँ ढुँडढूंढ
उनको ठहराने की जगह देख रहे होते हो।
इसी तरह से बना हुवा हुआ है इतिहासदिलों के बाढ पे बाढ़ पर किसी को धकेल कर, कहते हैँ।हैं।
किसी के चमकते नजरोँ नजरों से सिधा सीधा देखने से कोई पीडा दिखाइ दिया पीड़ा दिखाई दी तोकहीँ कहीं कोई मजबुत मजबूत संरचना टुट टूट जाती है।कोई दिल के अन्दर अंदर का खण्डहर खंडहर दिखाकर
दर्द से उठे, तो
तुम्हारे दिल पे पर ही भूकम्प भूकंप चल उठता है।
लगता है, इसिलिएइसलिएइन्सान इंसान का वक्त धुन्ध धुंध की तरहसभी के दिलोँ दिलों को छुते छूते हुए उडा हुवा उड़ा हुआ होता हैकभी -कभी लगता हैदर्जनोँ दर्जनों मुर्गे का बाँक मारने से भी नहीँ नहीं खुलेगी कल की सी सुब्ह।सुबह।लगता है हजारों चिडियों चिड़ियों का मिलकर गाने से भीशाम कल की सी समुचे सम्पूर्ण आकाश पे पर आरेखित नहीँ नहीं होगी।
इस लिएइसलिए, आजकल अपने ही छोटे -छोटे सुबहोँ सुबहों कोअक्षरों मे में कुरेदकर कागजों के मैदानों पे पर बिखेर देता हूँशामों को पकड कर पकड़करकविताओं का क्षितिज पे टँग पर टांग देता हूँ।
जिंदगी का मतलब
पहाड़ के ऊपर चढ़ चुकने के बाद
“ओफ! घाटी पर सब यादें छुट गईं” कहने की
एक लंबा निस्वास ही तो है।
जिन्दगी का मतलबपहाड के उपर चढ चुकने के बाद“ओफ! घाटी पे सब यादेँ छुट गए” कहने कीएक लम्बा निस्वास ही तो है। शहर मे पावँ रख्खे में पाँव रखे हुए कितने ही दिन हो चुके।चुके हैं।
यहाँ कितने ही वक्त को
पुराने घरोँ घरों और मुहल्लों मेंदेवालयोँ देवालयों और गुम्बजोँ गुम्बदों के खण्डहरोँ खंडहरों मेंगिर कर घायलों की तरह तडपता हुवा तड़पता हुआ देखता आया हूँ।
ऐसा लगने लगा है कि, दिलों और तमन्नाओं के भीखण्डहरेँ खंडहर होते हैँहैं;
जिस जगह आदमी
खुद ही का शहीद-दिवश दिवस मनाता है, एकल गायन गा -गा कर।अकेला उद्घोहषण उद्घोषण करता रहता हैऔर हथियारोँ पेहथियारों पर
छिपाता है अपने उस फसाने को।
यहाँ आजकल
यात्राओं का कोई मन्जिल नहीँमंजिल नहीं,कुछ जागर्ति जागृति के रास्ते सेढुक डुबक जाते हैं सपनों के अन्दरअंदर,कुछ कंधों पे पर रोशनी ढोकरअंधेरों को ढुँडते ढूंढते चलते हैं।टुट कर टूटकर गिर जाते हैं सपनेंसपनेजागर्तियाँ जागृतियाँ क्षतविक्षत हो जाते जाती हैं।अपने कान के बगल से उडते गोलीयों के आवाजों उड़ती गोलियों की आवाज़ों मेंघर पे पर खुद का छोड छोड़ आया संगीत सुनाई देता है
एक किशोर को।
झुठ खेलनेवालों झूठ खेलने वालों के अभिनयसच्चे खेल हो चलेँ चले हैं। उनको उन्हें देखभीड भीड़ के किनारे खुद खडा खड़ा होकर वाह ! वाह! करते
न चाहते हुए भी ताली मार रहा होता हूँ, मैं।
वक्त के कानों को
मेरी ताली सुनाई नहीं देती।
मेरा समर्थन या विरोध से
किसी खेल का हार या जीत नहीं होता।
कहानियाँ ढुँडते आनेवालों ढूंढते आने वालों का इन्तजार इंतजार कर अपने सभी अफसानों को समेट केसमेटकरएक रंगमञ्च पे खडा रंगमंच पर खड़ा कर देता हूँ।तन्त्र आलिङ्गन तंत्र आलिंगन में बँधे बंधे हुए आकाश-भैरव के नृत्योँ नृत्यों को कपडों पे कपड़ों पर फैलाकर किसी के आने का इन्तजार इंतजार करता रहता हूँ।
संस्कृति जिसे कहते हैं
कभी लगता है-
जैसे मेरे ही सपनों की खेती है;
खुद का देखा हुवा हुआ वक्त पेपर
कुछ बना डालने की तमन्ना से
खुद का टँगा हुवा टंगा हुआ आकाश है।
आजकल मैँमैंपहले ही छोड छोड़ आया घाटीयाँ घाटियाँ और पहाडियाँ पहाड़ियाँअभी चलता आया हुवा पगडण्डियाँहुआ पगडंडियाँसभी को
एक ही आकार देना चाह रहा होता हूँ।
मझे मुझे आजकलऔरों के दिलों के खण्डहरों खंडहरों सेकुछ रचनायेँ रचनाएँ उठा लाने की चाहत परेसान परेशान करती है,आजकल मैं
अपना आकाश औरों को दे
कहीं कुछ बन जाए, सोच कर परेसान परेशान हूँ।
लेकिन लगता है,
दौड दौड़ के अन्दर अंदर कहीं चबूतरेँ चबूतरे हैंजो औरोँ के नजरोँ औरों की नजरों के साथ अपने ही किसी यात्रा में दौडते दौड़ते हैं।
मुझे आजकल
कहीं चढते चढ़ते हुएऊँचाई परेसान परेशान नहीं करती
उतरते वक्त
घाटी के परेसानियाँ की परेशानियाँ असर नहीँ करते।नहीं करती।
आजकल मुझे
कभी थकित आकास थका हुआ आकाश भी स्पर्श करे तो कहीं जाने की चिन्ता चिंता की रोशनी पिछा पीछा नहीं करती;
आजकल मुझे।
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''इस कविता का मूल नेपाली-''
'''[[आजकल मलाई / अभि सुवेदी]]'''
''यस कविताको मूल नेपाली-''
'''[[आजकल मलाई / अभि सुवेदी]]'''
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