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|रचनाकार= मोमिला
|अनुवादक=सुमन पोखरेल
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<poem>
(तुम = पुरुष और मैं = नारी)
तुम और मैं
अर्थात हम,
रास्ते अलग होने पर भी,
आज, एक ही सपने पर दस्तख़त करके चल रहे हैं।
हाँ, जिस दिन तुम पैदा हुए थे,
माँ के माथे का तिलक अचानक सूरज बनकर
घर-आँगन में चमकता हुआ उजाला झिलमिलाता रहा।
पर जिस दिन मैं पैदा हुई,
माँ के माथे पर सूरज जैसा तिलक अचानक धुँधला होकर
आँखें ऐसे बरसती रहीं मानो, उन्हीं को बहा ले जाएंगी...
इस तरह, अलग-अलग किस्मत लेकर शुरू होने के बावजूद,
इंसान होने के नाते
हमारे अस्तित्व को खोज लेने की चाह एक जैसी है!
देखो तो!
हम दोनों की आँखों से एक साथ भागे हुए सपनों की दूरी एक जैसी है,
हम दोनों की संवेदनाओं से होते हुए साथ बहे हुए नदियों का रंग भी एक जैसा है।
हम दोनों के सीने से एक साथ वाष्पीकृत होकर उड़ चले हुए बादलों की परेशानियाँ भी एक जैसी है,
हम दोनों के दिलों से एक सा उठी हुई लहरों की चंचलता भी एक जैसी है।
शायद कहीं छूट गया था,
हम दोनों द्वारा देखा हुआ जीवन की ऊँचाई,
हम दोनों द्वारा समझी हुई जीवन की गहराई।
सुनो तो!
यहीं कहीं सुनाई देती है,
जीवन की ऊँचाई से मिलने के लिए अहं के पहाड़ पर चढ़ते
तुम्हारे हर एक कदमों की जोशीले आवाज़!
और यहीं कहीं मिलती है,
जीवन की गहराई पाने के लिए अहं के पहाड़ से उतरते
मेरे हर एक कदमों की उदास गूँज!
आखिरकार,
तुम्हारी चढ़ी हुई ऊँचाई से मुझ से मिलने के लिए,
तुम्हें मेरी ही तरह अहं का पहाड़ तो उतरना ही है,
मैने पाई हुई गहराई से तुम से मिलने के लिए,
मुझे तुम्हारी ही तरह अहं का पहाड़ चढ़ना ही है ।
इस तरह,
चढ़े और उतरे जाने वाला एक ही पहाड़ में,
हमारी ऊँचाई और गहराई का अहम् उलझता रहा।
हाँ, तुम जिस तरह भी हो, ज़िंदगी को लकीर खींचकर भी बहाना चाहते हो,
और मैं ज़िंदगी को ऐसे ही अविरल बह चाहती हूँ
वास्तविकता यह है कि
अविरल बहते समय की तरल सौंदर्य,
कविता के संपादित सौंदर्य जैसी
स्थिर और सुसज्जित तो कहाँ से होगी!
और हम दोनों जानते ही हैं—
न तो गिरते आँसुओं की संगीत संपादन करके बजती है,
न ही संपादन करकर के मुस्कान की दिव्यता को बिखेरा जाता है।
न ही उफनते प्रेम का संपादन जचता है,
न ही छलकते हुए घृणा का संपादन ही फबता है ।
न ही गिरते पत्ते का दृश्य-संपादन जचता है,
न ही उड़ती हुई गोधुली का सौदर्य-संपादन ही फबता है।
पर बहते समय की तरल सौंदर्य में
कविता के संपादित सौंदर्य जैसी
मर्जी मुताबिक का कोई मध्यांतर भी तो नहीं होता!
फिर भी,
खिलते फूल को स्थगित करके स्थिर सौंदर्य को पीने से,
बरसते बारिश को स्थगित करके एकरस तान सुनने से,
बहती नदी को स्थगित करने से छाई हुई मृत शांति से,
उड़ते बादल को स्थगित करने से दिखी स्थिर दृश्य से
खिलते फूल की तरल सौंदर्य,
बरसते बारिश की तरल सौंदर्य,
बहते पानी की तरल सौंदर्य,
उड़ते बादल की तरल सौंदर्य, तो
ज़िंदगी को ही छूकर बह रहे जैसे,
आहा! बहने का आनंद ही कुछ और लग रहा है!
यूँ तो, ज़िंदगी को बहा लेना चाहने वालों को भी,
इच्छा के मुताबिक स्थिर करते हुए अपनी रौसन ज़िंदगी को
अंधकार से देखने का मजा
शायद और ज्यादा होता होगा!
हाँ, तुम ज़िंदगी को एक तय धारा वाली नहर में बहाना चाहते हो,
और मस्तिष्क द्वारा निर्देशित गान में मस्त हो।
हाँ, मैं ज़िंदगी यूँ ही नदी बनकर बहना चाहती हूँ
और दिल की सरसराती धुन में मग्न हूँ।
तुम, समय-समय पर संपादन करते हुए/स्थगित होते हुए
चित्रकार अपने बनाए चित्र को
कूची को दाँतों तले दबाते हुए बार-बार निहारता है जैसे,
वैसे ही देखते हो किनारे पे खड़े होकर ज़िंदगी को
और मैं,
किनारे पर खड़े होकर देख रहे लोगों के लिए
अपनी ही धुन में बहती रहती है नदी जिस तरह
उसी तरह अचानक तमाशा बन देती हूँ।
फिर भी,
ज़िंदगी के नाम पर बहना,
तुम और मैं यानी हम दोनों का धर्म!
इस तरह,
हमारे अहं की दूरी का टूटा हुआ दिन
आहा! द्विवेणी में हमारा मिलन होना और साथ-साथ बहना
न तो बिना नदी का किनारा!
न ही बिना किनारा की नदी!!
आहा! सभ्यता का सबसे सुंदर दिन!!
हमारे अहं की दूरी का टूटा हुआ दिन!
संगम में हमारा मिलन होना और साथ-साथ बहना!!
सभ्यता का सबसे सुंदर दिन!!
वह दिन! हमारे अहं की दूरी का टूटा हुआ दिन !...!!...!!
०००
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(तुम = पुरुष और मैं = नारी)
तुम और मैं
अर्थात हम,
रास्ते अलग होने पर भी,
आज, एक ही सपने पर दस्तख़त करके चल रहे हैं।
हाँ, जिस दिन तुम पैदा हुए थे,
माँ के माथे का तिलक अचानक सूरज बनकर
घर-आँगन में चमकता हुआ उजाला झिलमिलाता रहा।
पर जिस दिन मैं पैदा हुई,
माँ के माथे पर सूरज जैसा तिलक अचानक धुँधला होकर
आँखें ऐसे बरसती रहीं मानो, उन्हीं को बहा ले जाएंगी...
इस तरह, अलग-अलग किस्मत लेकर शुरू होने के बावजूद,
इंसान होने के नाते
हमारे अस्तित्व को खोज लेने की चाह एक जैसी है!
देखो तो!
हम दोनों की आँखों से एक साथ भागे हुए सपनों की दूरी एक जैसी है,
हम दोनों की संवेदनाओं से होते हुए साथ बहे हुए नदियों का रंग भी एक जैसा है।
हम दोनों के सीने से एक साथ वाष्पीकृत होकर उड़ चले हुए बादलों की परेशानियाँ भी एक जैसी है,
हम दोनों के दिलों से एक सा उठी हुई लहरों की चंचलता भी एक जैसी है।
शायद कहीं छूट गया था,
हम दोनों द्वारा देखा हुआ जीवन की ऊँचाई,
हम दोनों द्वारा समझी हुई जीवन की गहराई।
सुनो तो!
यहीं कहीं सुनाई देती है,
जीवन की ऊँचाई से मिलने के लिए अहं के पहाड़ पर चढ़ते
तुम्हारे हर एक कदमों की जोशीले आवाज़!
और यहीं कहीं मिलती है,
जीवन की गहराई पाने के लिए अहं के पहाड़ से उतरते
मेरे हर एक कदमों की उदास गूँज!
आखिरकार,
तुम्हारी चढ़ी हुई ऊँचाई से मुझ से मिलने के लिए,
तुम्हें मेरी ही तरह अहं का पहाड़ तो उतरना ही है,
मैने पाई हुई गहराई से तुम से मिलने के लिए,
मुझे तुम्हारी ही तरह अहं का पहाड़ चढ़ना ही है ।
इस तरह,
चढ़े और उतरे जाने वाला एक ही पहाड़ में,
हमारी ऊँचाई और गहराई का अहम् उलझता रहा।
हाँ, तुम जिस तरह भी हो, ज़िंदगी को लकीर खींचकर भी बहाना चाहते हो,
और मैं ज़िंदगी को ऐसे ही अविरल बह चाहती हूँ
वास्तविकता यह है कि
अविरल बहते समय की तरल सौंदर्य,
कविता के संपादित सौंदर्य जैसी
स्थिर और सुसज्जित तो कहाँ से होगी!
और हम दोनों जानते ही हैं—
न तो गिरते आँसुओं की संगीत संपादन करके बजती है,
न ही संपादन करकर के मुस्कान की दिव्यता को बिखेरा जाता है।
न ही उफनते प्रेम का संपादन जचता है,
न ही छलकते हुए घृणा का संपादन ही फबता है ।
न ही गिरते पत्ते का दृश्य-संपादन जचता है,
न ही उड़ती हुई गोधुली का सौदर्य-संपादन ही फबता है।
पर बहते समय की तरल सौंदर्य में
कविता के संपादित सौंदर्य जैसी
मर्जी मुताबिक का कोई मध्यांतर भी तो नहीं होता!
फिर भी,
खिलते फूल को स्थगित करके स्थिर सौंदर्य को पीने से,
बरसते बारिश को स्थगित करके एकरस तान सुनने से,
बहती नदी को स्थगित करने से छाई हुई मृत शांति से,
उड़ते बादल को स्थगित करने से दिखी स्थिर दृश्य से
खिलते फूल की तरल सौंदर्य,
बरसते बारिश की तरल सौंदर्य,
बहते पानी की तरल सौंदर्य,
उड़ते बादल की तरल सौंदर्य, तो
ज़िंदगी को ही छूकर बह रहे जैसे,
आहा! बहने का आनंद ही कुछ और लग रहा है!
यूँ तो, ज़िंदगी को बहा लेना चाहने वालों को भी,
इच्छा के मुताबिक स्थिर करते हुए अपनी रौसन ज़िंदगी को
अंधकार से देखने का मजा
शायद और ज्यादा होता होगा!
हाँ, तुम ज़िंदगी को एक तय धारा वाली नहर में बहाना चाहते हो,
और मस्तिष्क द्वारा निर्देशित गान में मस्त हो।
हाँ, मैं ज़िंदगी यूँ ही नदी बनकर बहना चाहती हूँ
और दिल की सरसराती धुन में मग्न हूँ।
तुम, समय-समय पर संपादन करते हुए/स्थगित होते हुए
चित्रकार अपने बनाए चित्र को
कूची को दाँतों तले दबाते हुए बार-बार निहारता है जैसे,
वैसे ही देखते हो किनारे पे खड़े होकर ज़िंदगी को
और मैं,
किनारे पर खड़े होकर देख रहे लोगों के लिए
अपनी ही धुन में बहती रहती है नदी जिस तरह
उसी तरह अचानक तमाशा बन देती हूँ।
फिर भी,
ज़िंदगी के नाम पर बहना,
तुम और मैं यानी हम दोनों का धर्म!
इस तरह,
हमारे अहं की दूरी का टूटा हुआ दिन
आहा! द्विवेणी में हमारा मिलन होना और साथ-साथ बहना
न तो बिना नदी का किनारा!
न ही बिना किनारा की नदी!!
आहा! सभ्यता का सबसे सुंदर दिन!!
हमारे अहं की दूरी का टूटा हुआ दिन!
संगम में हमारा मिलन होना और साथ-साथ बहना!!
सभ्यता का सबसे सुंदर दिन!!
वह दिन! हमारे अहं की दूरी का टूटा हुआ दिन !...!!...!!
०००
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