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<poem>
धरती का यौवन मस्त खिलने पर
फूलों का, ऊँचाइयों को छूकर आसमान को चूमना जैसा,
झिलमिलाता हुआ सुबह का सूरज
सपनों की परी से मिलने के लिए ऊँचाइयों की ओर दौड़ने जैसा।
प्रेम पिघलता आँखों से
ऊँचाइयों की ओर क्यों नहीं बहते आँसू?

अश्वत्थामा के मणि की तरह
तुम्हारे माथे पर सजा शक्तिशाली तीसरी आँख,
क्यों इतनी सूख गई है?

बल्कि, तुम्हारी तीसरी आँख से
धुएँ का कुहरा उठकर आग भड़क रही है!
फिर भी आँखों से ऊँचाइयों की ओर क्यों नहीं बहते आँसू?
और तुम्हारे माथे से उठता वह ज्वालामुखी-धुएँ को शांत क्यों नहीं करता!!

फिर हम तो बारिश में उगने वाले कुकरमुत्ते जैसे ज़मीन के लोग—
तुम्हारी ऊँचाइयों से थूका हुआ थूक भी
हमेशा हमारे सिर पर गिरता है!
तुम्हारे थूके थूक पर फिसलकर
हमें ही चारों खाने चित होना पड़ता है!

हम तो अपने आँसू भी धरती पर न गिरें, सोचकर
रोते हुए आसमान की तरफ़ मुँह कर लेते हैं...

आँखों का छलकने पर अगर नीचे की और बहने लगे आँसू
तो कम से कम सीने के अंदर अपने ही दिल को लबालब भीगो देते हैं
पर बाढ़ बनकर कभी भी तुम्हारे आँगन में दाख़िल नहीं हुआ!
अपने घर को ही बहा ले जाता है, तुम्हारे घर को कभी नहीं बहा डाला!
बाकी दर्दों की तो बात ही क्या!
तुम पर तो हमारे आँसुओं की एक छींट भी नहीं पड़ी!

फिर तुम तो दुनिया के सबसे शक्तिशाली शासक
पर मेरे अंगूठे के निशान से भी सस्ता लगने वाला
तथाकथित तीसरी आँख के मालिक तुम
क्यों इतना विवेकहीन होकर सूख गयी है!

वैसे तो, तुम्हें
दूसरे के दुःख में बहने वाले आँसुओं का मूल्य क्या पता!
तुम्हारा आँसू तो—
न ऊँचाई की ओर बहकर मस्तिष्क को भिगोता है!
न नीचे की और बहकर हृदय को भिगोता है!!

जम चुके हैं पत्थर बनकर
जो दिल और दिमाग़,
उन्हें आँसू भी कहाँ भिगो सकते हैं !

और फिर अपनी घड़ी की सारी सूइयों को मुट्ठी में लेकर
सबकी घड़ियों में बारह बजने का भ्रम रखने वाले तुम
अपनी ऊँचाई का वही स्थिर बारह बजे का समय पर
अपने आँसू को भी स्थिर बनाकर जमा चुके हो ।

तब ही तो, तुम्हारा जमा हुआ आँसू
न ऊँचाई की और बहता है…!
न नीचे की और ही बहता है…!

इस वक़्त, मेरी घड़ी में तो ठीक छह बजे हुए हैं...

०००
</poem>
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