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|रचनाकार= महादेवी वर्मा
}}
{{KKCatKavita}}<poem>यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो <br>रजत शंख घड़ियाल स्वर्ण वंशी-वीणा-स्वर,<br>गये आरती वेला को शत-शत लय से भर,<br>जब था कल कंठो का मेला,<br>विहंसे उपल तिमिर था खेला,<br>अब मन्दिर में इष्ट अकेला,<br>इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!<br><br>
चरणों से चिन्हित अलिन्द की भूमि सुनहली,<br>प्रणत शिरों के अंक लिये चन्दन की दहली,<br>झर सुमन बिखरे अक्षत सित,<br>धूप-अर्घ्य नैवेदय अपरिमित <br>तम में सब होंगे अन्तर्हित,<br>सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!<br><br>
पल के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया,<br>प्रतिध्वनि का इतिहास प्रस्तरों बीच खो गया,<br>सांसों की समाधि सा जीवन,<br>मसि-सागर का पंथ गया बन<br>रुका मुखर कण-कण स्पंदन,<br>इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!<br><br>
झंझा है दिग्भ्रान्त रात की मूर्छा गहरी<br>आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी,<br>जब तक लौटे दिन की हलचल,<br>तब तक यह जागेगा प्रतिपल,<br>रेखाओं में भर आभा-जल<br>दूत सांझ का इसे प्रभाती तक चलने दो!<br><br/poem>
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