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शहर की याद / प्राणेश कुमार

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बेरोजगारी से ग्रस्त
घर से दूर सड़कों पर समय काटना
दफ्तरों का चक्कर
बेरोजगारी और साहित्य पर बात करना
रोजी-रोटी की तलाश में घूमना
और अंत में निराश- हताश
घर आकर गुमसुम बैठ जाना ।

छोटे से अख़बार के दफ़्तर में काम करना
राजनीति -साहित्य- सिनेमा पर लेख लिखना
छोटे से प्रेस में मैनेजरी करना
गोष्ठी, चाय और सिगरेट का धुँआ
कटिंग मशीन, ट्रेडिल और प्रूफ मशीन के साथ
खुद मशीन बनना
रात -रात भर चलती मशीन की आवाज़
और रात को बेंच पर विश्राम करता मैं !

अपने शहर की बेतरतीब गलियाँ
छोटी-छोटी सड़कें
मेन रोड , सिनेमा हॉल
कुहासे में डूबा हुआ शहर
ट्यूबलाइट की फीकी होती रोशनी
इनके बीच दोस्तों से बातें करता मैं
यकायक बारिश में भीगता हुआ शहर
और दोस्तों के साथ
किसी बंद दुकान के बाहर
कारकेट सीट के नीचे
बारिश की आवाज़ सुनता मैं
दौड़ता
पानी की छप- छप की आवाज़ से
लय मिलाता !
सिगरेट पीना
हँसना
दोस्तों के साथ लड़ना
शिकायत सुनना और करना
निराशा - कुंठा , कविता -आलोचना
अनगढ़ प्रीत -अनकहे सम्बंध
अलौकिक स्पर्श- अव्यक्त समर्पण
हवा -रंग- सुवास
प्रेरक प्रकृति -
अनचाही -अनब्याही अभिव्यक्ति
उनकी गहराइयों में डूबा मैं !

आज स्मृतियाँ कौंध- कौंध जाती हैं
अपने शहर से दूर
इस अजनबी शहर में समय गुज़ारते हुए
और बहुत याद आता है
छूटा हुआ शहर -
बहुत याद आते हैं छूटे हुए लोग ।

पता नहीं मेरे शहर की सड़कों पर
मेरे पदचिन्ह मिटें हैं या नहीं
पता नहीं मेरे लोगों के दिलों से
मेरी स्मृतियाँ हटीं हैं या नहीं
पता नहीं वहाँ की झील के जल पर
मेरी भावनाओं के तरंग आते हैं या नहीं
पता नहीं अख़बार के दफ़्तर
और प्रेस की मशीनों पर
मेरे पसीने के अवशेष
बचे हैं या नहीं
पता नहीं शहर की हवाओं में
मेरी देह-गंध
बची है या नहीं
पता नहीं गोष्ठियों में ,
दोस्तों के कमरों और क्वार्टरों में ,
और हर जगह -हर जगह
मेरी उपस्थितियों की अनुभूतियाँ
बची हैं या नहीं !

आज जब उन्हीं अनुभूतियों में
डूबा मैं
उन्हीं के बारे में सोचता हूँ
तो बहुत याद आता है
छूटा हुआ शहर
बहुत याद आते हैं छूटे हुए लोग !
</poem>
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