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खामोशी / प्राणेश कुमार

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<poem>
कितना ख़ामोश है जंगल
पेड़ों को काठ मार गया है जैसे
रुक गयी है गति नदियों की
शांत हो गयी है आवाज़ चिड़ियों की
दुबके पड़े हैं जानवर अपनी माँदों में
कितना ख़ामोश है जंगल !

खामोश जंगल में
गूँजने लगी है गोलियों की आवाज़
बूटों की चहलकदमी से बेचैन है जंगल
किसी मासूम के खून से
नहलाया गया है चट्टानों को ।

चट्टान का बना होता है चट्टानों का हृदय
भावनाओं के ज्वार नहीं उठते इनमें
किसी प्रेमी ने लिखे थे इनपर
प्रेम कविताओं की मासूम पंक्तियाँ
इन पंक्तियों को लहू की सुर्खी ने
मिटा --सा दिया है !

जंगलों के बीच बसी है आबादी
इन्होंने ढोई है सभ्यता पुश्त -दर -पुश्त
आदिम सभ्यता से असभ्यता की ओर
बढ़ते कदमों से
स्तब्ध है आबादी
माँदल और बाँसुरी के स्वर
नहीं गूँजते जंगलों में अब !

जंगल प्रतीक्षा करता है
माँदल और बाँसुरी की
जंगल ख़ामोश है फिलवक्त !
</poem>
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