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घोंसला / प्राणेश कुमार

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<poem>
मैंने बना लिया है
एक छोटा सा घोंसला
तुम्हारे घर के रोशनदान में !

तुम बार बार चाहते हो
मेरे घोंसले को हटाना
घर के रोशनदान को बंद कर
चाहते हो रोशनी को भी रोकना
मैं कितनी दूर से
लाता हूँ अपनी चोंच से
तिनके चुनकर
खेतों से बालियाँ
मैदानों से घास
हवा और रोशनी !

चाहता हूँ मैं अपनी आवाजों का उल्लास
और मैं ज़ोर से
अपने परों को फड़फड़ाता
गाता कोई उल्लास का गीत
उड़ने लगता हूँ
तुम्हारे शयनकक्ष की उदासियों को तोड़ता।
और तुम
खीझते हो मेरे प्रयास पर
किसी पेपरवेट से
करते हो प्रहार मुझ पर !
मैं अपने घायल पंखों को समेटे
भागता हूँ क्षितिज की ओर
मेरे समक्ष है
विस्तृत आकाश
घायल पंखों से
नापना चाहता हूँ आकाश
जाना चाहता हूँ क्षितिज की ओर
लेकिन
तुम्हारे रोशनदान में स्थित
अपने घोंसले की स्मृति
बार बार परेशान करती है मुझे
और फिर मैं आ बैठता हूँ
तुम्हारे घर के बाहर के पेड़ पर
बेचैन परेशान !
</poem>
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