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पटकथा / पृष्ठ 5 / धूमिल

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तीसरे के बाद चौथा
चौथे के बाद पाँचवाँ…
यानी यानि कि एक के बाद दूसरा विकल्प
चुन रहा था
मगर मैं हिचक रहा था
क्योंकि मेरे पास
कुल जमा थोड़ी सुविधायें सुविधाएँ थीं
जो मेरी सीमाएँ थीं
यद्यपि यह सही है कि मैं
भभककर बाहर नहीं आती
क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ
एक ‘पूँजीवादी’दिमाग ‘पूँजीवादी’ दिमाग है
जो परिवर्तन तो चाहता है
मगर आहिस्ता-आहिस्ता
इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर
जमी हुई काई और उगी हुई घास को
खरोंच रहा था,नोंच रहा था
पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये
मैंने आदमी के भीतर की मैल
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