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पटकथा / पृष्ठ 7 / धूमिल

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नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुजा़र दीं हैं
हफ्तों हफ़्तों पर हफ्ते हफ़्ते तह किये हैं
अपनी परेशानी के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
और हर बार मुझे लगा है कि कहीं
कोई खास ख़ास फ़र्क़ नहीं है
ज़िन्दगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है
जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है
कल तक जो थे नहले
आज
दहले हुये हुए हैं
हाँ यह सही है कि
मन्त्री जब प्रजा के सामने आता है
तो पहले से ज्यादा ज़्यादा मुस्कराता है
नये-नये वादे करता है
और यह सिर्फ़ घास के
ख़ामोश है
मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का
एक पुर्जा़ पुर्ज़ा गरम होकर
अलग छिटक गया है और
ठण्डा होते ही
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