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15 अक्टूबर {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दीपा मिश्रा
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हम संसारक सबसँ नीक छंद बनि सकैत रही
इच्छा छल जे अहाँ हमरा लिखतौं
हमर आखर आखरमे नुकाएल छल अहाँ लेल जे प्रेम
बिनु कहने ओ बुझितौं
ऋतु बदलैत गेल
हम कतबो प्रयास केलौं जे
अषाढ़मे अहाँ मात्र एकबेर
हमर हृदय पर हाथ राखी
आ सुनी ओकर भीतरक ठनकाक गर्जन जे प्रेम विहिन क्षितिजके निहारैत ओतहि गरजिकेँ शान्त भ' जाइत छल
आगि सन हकमैत मरुभूमिमे सेहो कोस धरि चलता पर मरुद्यान भेटैत छै
मुदा हमर जीवनक यात्राक क्रममे त' ओ कतहु नहि छल
दूर तक पसरैत गेल अकाजक घृणाक बबूरक वन
अपनहि लोकक बिछाओल कांट
बिछैत बिछैत चलैत रहलौं
बिसरैत गेलौं गबिते गबिते
चैती लगनी बरहमासा
भास कतौ खसल सुर कतौ ससरि छिड़ियाइत गेल
सुन्न आँखिसँ देखैत रहलौं सबटा
मिटाइत जाइत नेहक अरिपन
सती नै रही जे तपा लैतौं देहकेँ आ हमर महादेव
हमरा उठा बताह भेलि घुमितैथ
गलैत खसैत रहिते हमर एक एक टा अंग
साधारण स्त्रीकेँ मरबा केर पलखति नहि होइत छै
अपमान उपेक्षा जखैन तीर जेना बेंधैंत गेल मोनक कोमल पुष्पकेँ
नहि भेल सह्य हमरा नित पीठ पर उठाकेँ चलब अपन लहास
डाहि देलौं ओतहि सजाके सभक कटुतासँ कलपैत अपन मनकेँ
हम ओत्तहि बैसि रहलौं
आ मेटा देलौं अपन चारूकात खेंचल अहाँक मर्जादाक लकीर
जकरा नांघिते हमरा पर थोपि देल जाइते अग्नि परीक्षाक अभिशाप
आ साटि देल जाइते कोनहु ने कोनहु दाग
हे आब ने हम कोनो मंत्रसँ पाथर बनब
आ ने हमरा धरतीक गर्भमे नुका जएबाक सेहन्ता
राखू आब अपन सबटा नियम कानून अपन पूर्वजक सनुक्चामे
हम छोड़ाके आनि लेलौं अहाँक घरसँ कोनमे सिसकैत अपन स्वाभिमानकेँ
नहि हारब त' किन्नहु नहि
टूटब, मुदा जोड़ि लेब अपनाकेँ
दुःख भेल जे आइ धरि बुझबे नै केलौं अपन तागद,अपन सामर्थ
पांखि अछैतो ओकरा समेटिके परबा जेना
तकैत रहलौं आससँ अहीं दिस
आब जाके जखैन चिन्हलौं अपनाकेँ त' बुझलौं जीवन की होइत छै
की होइए ओकर महत्त्व
स्त्री के एके जीवनमे कतेको बेर पुनर्जन्म लिए पड़ैत छै
हम अपनहि गर्भसँ स्वयंकेँ नब जन्म द' रहलौं
सुनू, हम आइओ सर्वश्रेष्ठ कविता छी
अपना आपकेँ आब हम स्वयं लिखैत छी
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