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{{KKRachna
|रचनाकार=राजेन्द्र गौतम
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
दिल्ली के धुर दक्षिण में
अब वामपंथ के डेरे ।
क्रान्ति-ध्वजा फहराती थी
जिनके जलयानों पर
कृपा-दृष्टि उनकी है अब
निर्दय तूफानों पर
जिन पर चाबुक लहराते थे
अब उनके ही चेरे ।
कल तक लाल किताबें थे
दाबे जो बग़लों में
मार्क्स जुगाली करते हैं
अब डिक् के बंगलों में
सत्ता के गलियारों में ही
लगते उनके फेरे ।
खुला ‘गेट’ पच्छिमी हवा अब
आंधी बन कर उतरी
उनकी खल-खल हँसी गूँजती
इनकी उतरी चुनरी
पूंजी तक आवारा हो जब
कौन मूल्य तब घेरे ।
</poem>
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|संग्रह=
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दिल्ली के धुर दक्षिण में
अब वामपंथ के डेरे ।
क्रान्ति-ध्वजा फहराती थी
जिनके जलयानों पर
कृपा-दृष्टि उनकी है अब
निर्दय तूफानों पर
जिन पर चाबुक लहराते थे
अब उनके ही चेरे ।
कल तक लाल किताबें थे
दाबे जो बग़लों में
मार्क्स जुगाली करते हैं
अब डिक् के बंगलों में
सत्ता के गलियारों में ही
लगते उनके फेरे ।
खुला ‘गेट’ पच्छिमी हवा अब
आंधी बन कर उतरी
उनकी खल-खल हँसी गूँजती
इनकी उतरी चुनरी
पूंजी तक आवारा हो जब
कौन मूल्य तब घेरे ।
</poem>