भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
बैठी चिड़िया
कभी-कभी भोर के कानों में
अवार में मिट्टी कह जाती है । शोरगुल शोरग़ुल के बीच,सिर्फ़ दो शब्द नसीहतों के ,कह जाते हैं रसूल, कानों में ।
मास्को की गलियों में उपले छपी दीवारें नहीं है
कहते थें थे रसूल के अब्बा, आँखों में रौशनी की पुड़िया खोलती त्साता गाँव की लड़कियाँ,
आज भी आती होंगी माथे पर जाड़न की गठरी लेकर
और सर्द पहाड़ियों पर कविता जन्म लेती होगी
रसूल क्या आपके गाँव में
अब भी वादियाँ हरी और घर पाषाणी हैं ?कल ही की बात हो जैसे,
सिगरेट सुलगाते रसूल कहते हैं,
अपनी ज़बान और मेहमान को हिक़ारत से मत देखना
वरना बादल बिजली गिरेंगे हम पर, तुम पर, सब पर । मैं रसूल हमजातोव,हमज़ातोवआज भी दिल के दरवाज़े पर दस्तक देता हूँ खट-खट,मांस और बूजा बूज़ा परोसने का समय हो गया है उठ जाओ,मैं अन्दर अंदर आऊँ या मेरे बिन बिना ही तुम्हारा काम चल जाएगा ।
</poem>