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जलते रहे सवाल / गरिमा सक्सेना

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<poem>
अपनी चादर बढ़ा रहे हैं
कब आँसू को पोंछ सके वो
बने कहाँ रूमाल किसी का

खड़े कर लिये महल दुमहले
बिठवाये दरबान दरों पर
खिड़की साउंड प्रूफ काँच की
चीख़, रुदन आये मत भीतर

टीवी पर सब सुन ही लेंगे
बाहर क्या है हाल किसी का

समाधान का सुर है ग़ायब
प्रश्नोत्तर की ता-ता थैया
सबके उत्तर पूर्व नियत हैं
पूछो चाहें कुछ भी भैया

घी डालो नित और हवा दो
जलता रहे सवाल किसी का

भूले हैं जो शक्ति एकता
उन्हें सहज है मूर्ख बनाना
सुर में सुर मिल ही जायेंगे
आँतें जब माँगेंगी खाना

दाने ऊपर बिखरे हों तो
कहाँ दिखेगा जाल किसी का
</poem>
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