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यही हासिल ठहरा / नरेन्द्र जैन

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जो बात
शीशे की तरह साफ़ थी
उसमें एक बात की परछाईं उतर आई है
नदी बह रही है पूरे वेग से
छायाकार ठहरा एक उदास शाम का मेहमान
उसके कैमरे में
शव की तरह लेटा है एक दृश्य
और वह अभी
बाहर नहीं आया है

बरबाद शुदा जीवन का
यही हासिल ठहरा
</poem>
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