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Kavita Kosh से
दिये का तेल सारा जल चुका है
बस इक रक्से-शरर<ref>लौ का निरित्य</ref> होने को है फिर
तख़य्युल<ref>कल्पना</ref> अब मुजस्सम<ref>रूपधरना</ref> हो चला है
‘अना’ तू बेहुनर होने को है फिर
</poem>
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