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यही ठिकाने के चार दिन थे सो तेरी हां हूं में कट गये हैं
हयात<ref>जिंदगी</ref> ही थी सो बच गया हूं वगरना सब खेल हो चुका था
तुम्हारे तीरों ने कब ख़ता की, हमीं निशाने से हट गये हैं
थे मेरे हिस्से में तीन कमरे जो आठ बेटों में बट गये हैं
मुहब्बतों की वो मंजि़लें हों, के जाहो-हशमत<ref>राज गद्दी</ref> की मसनदें हों
कभी वहां फिर न मुड़ के देखा क़दम जहां से पलट गये हैं
बड़े परीशा हैं ऐ मुहासिब<ref>लेखापाल</ref> तिरे हिसाबो किताब से हमकिसे बतायें ये अलमिया<ref>दुःखदाई बात</ref> अब कि ज़र्ब<ref>जोड़</ref> देने पे घट गये हैं
मैं आज खुल कर जो रो लिया हूं तो साफ़ दिखने लगे हैं मंज़र
वही नहीं एक ताज़ा दुश्मन, कई को मिर्ची लगी हुई है
हमें क्या अपना बनाया तुमने, कई नज़र में खटक गये हैं
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