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वो ज़िले में और हम तहसील में ।
उसकी आराइश<ref>शृंगार</ref> की क़ीमत कैसे दूँ,
दिल को तोला नाक की इक कील में ।
कुछ रहीने मय<ref>शराब की अहसानमंद</ref> नहीं मस्ते ख़राम,
सब नशा है सैण्डिल की हील में ।
उम्र अदाकारी में सारी कट गई,
इक ज़रा से झूठ की तावील<ref>बात घुमाना</ref> में ।
हुक्म कर के देखिएगा तो हुज़ूर,
सैकड़ों ग़ज़लें मुकम्मल हो गईं,
इक अधूरे शेर की तकमील<ref>पूरा करने की कोशिश</ref> में ।
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