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उस क़ादरे-मुतलक़<ref>सर्व श्रेष्ठ ईश्वर</ref> से बग़ावत भी बहुत की,इस ख़ाक के पुतले ने जसारत<ref>दुष्साहस </ref> भी बहुत कीकी।
इस दिल ने अदा कर दिया हक़ होने का अपने,नफ़रत भी बहुत की है मुहब्बत भी बहुत कीकी।
काग़ज़ पे तो अपना ही क़लम बोल रहा है,मंचों पे लतीफ़ों ने सियासत भी बहुत कीकी।
नादान सा दिखता था वो हुशियार बहुत था,सीधा-सा बना रह के शरारत भी बहुत कीकी।
मस्जिद में इबादत के लिए रोक रहा था,आलिम था मगर उसने जहालत भी बहुत कीकी।
इंसाँ की न की क़द्र तो लानत में पड़ा है,करने को तो शैतां ने इबादत भी बहुत कीकी।
मैं ही न सुधरने पे बज़िद था मेरे मौला
तूने तो मिरे साथ रियायत भी बहुत की
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