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{{KKCatGhazal}}
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मसलहत ख़ेज़<ref>स्वार्थपूर्ण</ref> ये रियाकारी<ref>दिखावा</ref>,ज़िन्दगानी की नाज़ बरदारीबरदारी।
कै़सरी<ref>बादशाही</ref> तेरी मेरा दश्ते-नज्द<ref>वो जंगल जिसमें मजनूं भटकता था</ref>,अपने-अपने जहाँ की सरदारीसरदारी।
कैसे नादाँ हो काट बैठे हो,एक ही रौ में ज़िन्दगी सारीसारी।
हो जो ईमाँ तो बैठता है मियाँ,एक इन्साँ हज़ार पर भारीभारी।
कारोबारे जहाँ से घबराकर,कर रहा हूँ जुनूँ की तैयारीतैयारी।
ज़हनो-दिल में चुभन सी रहती है,शायरी है अजीब बीमारीबीमारी।
मुस्कुरा क्या गई वो शोख़ अदा,दिल पे गोया चला गयी आरीगई आरी।
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