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Kavita Kosh से
कहीं आम था, कहीं अनार
कहीं था पोखर, कहीं तलैया
कहीं थी झरनों की झँकारझंकार
कभी वो तोड़ें पकते जामुन
भरी दोपहरी नील गगन में
बाँध के डोरी उड़ न पाएँ
मन में रहती एक उमंग
खुली छत पर श्वेत बिछौना
सप्तऋषि की गिनती करते
कभी ढूँढ़ते ढूँढते ध्रुव तारे कोचँदा चन्दा से दो बातें करते
खेल-खेल में दिन थे बीते