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Kavita Kosh से
उसको सुख का व्यापारी समझा जाता है
सुन्दर-स्वच्छ आवरण में लिपटा रहता जो
नक़ली मुस्कानों का परदा ज़रा उठा कर
देखो मैं कितना संत्रास लिए बैठा हूँ
मुझसे नाता जोड़ न करना तुम नादानी
अपने मग में शूल स्वयं ही मत बिखराना
दहक चुके अंगारे का अब कौन ठिकाना
मुझमें जीवन दिखा कहाँ से तुमको, मैं तो