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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
टिकी पल भर किसी मुश्किल को शाने पर नहीं देखा।
खुदा के नेक बन्दों को कभी अबतर नहीं देखा।

सबेरे भोर से पहले जो बिस्तर छोड़ देते हैं,
शनिश्चर और मंगल का असर उनपर नहीं देखा।

हुनर था खा़स माँ के पास रिश्तों की रफू़गीरी,
कराने में सुलह उन जैसा जादूगर नहीं देखा।

किसी सैलाब को, तूफान को, या जलजला कोई,
उसूलों से डिगा दे इतना ताकतवर नहीं देखा।

मुसीबत कोई भी आई अलावा सिर्फ़ मालिक के,
पिता जी को किसी दर पर झुकाते सर नहीं देखा।

वफा़ के जिन बगीचों को मुहब्बत से मिला पानी,
असर पाले व लू का उन पर रत्ती भर नहीं देखा।

घड़ी भर और ऐ ‘विश्वास’ रुक जाओ गु़जारिश है,
बता दें सच, अभी हमने तुम्हें जी भर नहीं देखा।
</poem>
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