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|रचनाकार=ऋचा दीपक कर्पे
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
अच्छा लगता है मुझे
अपने कमरे के पिंजरे में
कैद होकर
खिड़कियों की
सलाखों के बाहर..
सुस्ताते
दाना-पानी ढूंढते
फुदकते
डालियों पर झूलते
पंछियों को
मन भर कर देखना
उनका मीठा गीत सुनना
वे विश्वास दिलाते हैं
कि मेरे विचार
और उनके पंख स्वतंत्र हैं
उन्मुक्त आकाश में
उड़ने के लिए!
</poem>
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अच्छा लगता है मुझे
अपने कमरे के पिंजरे में
कैद होकर
खिड़कियों की
सलाखों के बाहर..
सुस्ताते
दाना-पानी ढूंढते
फुदकते
डालियों पर झूलते
पंछियों को
मन भर कर देखना
उनका मीठा गीत सुनना
वे विश्वास दिलाते हैं
कि मेरे विचार
और उनके पंख स्वतंत्र हैं
उन्मुक्त आकाश में
उड़ने के लिए!
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