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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
गजब की रंगत गुलों में ताज़ा चमन में रौनक कमाल की है।
जरा बताओ ज़मीर वालो ये रोशनी किस मशाल की है।

अभी है हाथों में जामो-मीना अभी सलामत है होश अपना,
हुई फ़ज़ा है ये जाफरानी ख़ुदा ने जन्नत बहाल की है।

कफस ये टूटेगा आज हमदम उड़ेगा तायिर ख़ुशी से अपनी,
न रखना शिक़्वा गिला है दिल में नहीं ज़रूरत मलाल की है।

ये ख़ाल उधड़ी हथेलियों की बता रही है हुई मशक्कत,
कुबूल दावत करो खु़शी से गिजा ये सारी हलाल की है।

बहारे गुल की क़सम तुम्हें है न देर हो अब चले भी आओ,
तुम्हें मुहब्बत बुला रही है नहीं इजाज़त सवाल की है।

ग़ज़ल मुकम्मल नहीं हुई है अभी है मक़्ते का शेर बाकी़,
लगा है ‘विश्वास’ कोशिशों में तलाश रौशन खयाल की है।
</poem>
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