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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
क्यूँं चाहते हैं आप सच से सामना न हो।
हो कत्ल और खून से खंज़र सना न हो।

पूरी न कर सकेंगे हम ये शर्त आपकी,
हो रात पूस की मगर कुहरा घना न हो।

आई ख़बर खि़लाफ है इस वक़्त कुछ हवा,
वो दोस्त फिर भी दोस्त हैं तू अनमना न हो।

मौला की पड़ गई नज़र जिस पर नजीर है,
बिगड़ा हुआ नसीब फिर उसका बना न हो।

लाना है इन्कलाब तो लाओ मगर जनाब,
देखो किसी उसूल की अवहेलना न हो।

या रब दुआ कुबूल हो जिन्दा रहे जमीर,
इन्सानियत न ख़त्म हो उल्फ़त फना न हो।

कोई अंधेरी रात इक देखी न अब तलक,
सूरज को अपनी कोख से जिसने जना न हो।

‘विश्वास उठ चुनौतियों के हल तलाश कर,
तस्वीर ऐसी मुल्क की गर देखना न हो।
</poem>
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