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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
गाँव बहका और उलझा जातिवादी मसअला तो।
रो पडेंगे सब अगर इस बार फिर दंगा हुआ तो।

हम छिपा लें लाख लेकिन इश्क़ बोले सर पर चढ़कर,
जल उठेगा ये ज़माना गर किसी का दिल जला तो।

सोचिये कैसे बचें हम जद से जा़लिम तीरगी की,
दान की इस रौशनी की आँख का पानी मरा तो।

पेशगी में किस तरह से जंग का एलान कर दूँ,
लग रहा डर दुश्मनों से भाई जाकर मिल गया तो।

ताने बाने बुन रहे हैं जेल से दद्दन मुनव्वर,
गाँव मुश्किल में पड़ेगा सच न बोला आइना तो।

बोलना, ख़ामोश रहना दोनों मुश्किल लग रहे हैं,
सोचता हूँ बज़्म में ये मुद्दआ कल फिर उठा तो।

जीतना तय हो भले पर फिक्ऱ है अगले क़दम की,
उसने गर ‘विश्वास’ बदला पैंतरा कोई नया तो।
</poem>
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