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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
झूमी न दिल की सब्जपरी और फिर कभी।
बगिया हुई न वैसी हरी और फिर कभी।
बादल तुम्हारी याद के बरसे बहुत मगर,
उस रात-सी न ओस झरी और फिर कभी।
उस दिन के बाद फिर न सुनी हमने अब तलक,
आवाज वह मिठास भरी और फिर कभी।
जो ज़िन्दगी संवार गये पल वह याद हैं,
महकी न वैसी भोर मेरी और फिर कभी।
वो इश्क़ के चिराग जलाने का वक़्त था,
कह लेते मुझको खोटी खरी और फिर कभी।
तुझमें कमाल कितना है वह आज दिख गया,
दिखलाऊँगा मैं जादूगरी और फिर कभी।
रौशन करूँगा आज मुहब्बत के दर को मैं,
‘विश्वास’ तेरी बारादरी और फिर कभी।
</poem>
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|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
झूमी न दिल की सब्जपरी और फिर कभी।
बगिया हुई न वैसी हरी और फिर कभी।
बादल तुम्हारी याद के बरसे बहुत मगर,
उस रात-सी न ओस झरी और फिर कभी।
उस दिन के बाद फिर न सुनी हमने अब तलक,
आवाज वह मिठास भरी और फिर कभी।
जो ज़िन्दगी संवार गये पल वह याद हैं,
महकी न वैसी भोर मेरी और फिर कभी।
वो इश्क़ के चिराग जलाने का वक़्त था,
कह लेते मुझको खोटी खरी और फिर कभी।
तुझमें कमाल कितना है वह आज दिख गया,
दिखलाऊँगा मैं जादूगरी और फिर कभी।
रौशन करूँगा आज मुहब्बत के दर को मैं,
‘विश्वास’ तेरी बारादरी और फिर कभी।
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