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 शहीदे वतन का नहीं कोई सानी वतन वालों पर उनकी है मेहरबानी वतन पर निछावर किया अपना सब कुछ लड़कपन का आलम बुढ़ापा जवानी किया दिल से हर फ़ैसला ज़िंदगी का कोई बात समझी, न बूझी, न जानी
लड़े खून की आख़िरी बूँद तक वो
लहू की नदी भी पड़ी है बहानी कफ़न की कसम, “हो हिफाज़त वतन की” वसीयत शहीदों की है मुहँजबानी मुहँज़बानी वतन के लिए जो फ़ना हो गए हैं तिरंगा उन्हीं की सुनाता कहानी 'रक़ीब' उनका क्यों ज़िक्र दो दिन बरस में वो हैं जाविदाँ ज़िक्र भी जाविदानी  
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