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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
जर्फ़ पर कितना ही शातिर वक़्त ने हमला किया।
अपनी उल्फ़त को मगर हमने नहीं रुसवा किया।

राज आया अब समझ में क्यों हँसी थी चाँदनी,
मुस्कुराया चाँद था, जब आपने वादा किया।

देख ले कोई न मुझको लौटते दहलीज़ से,
इसलिये छुपकर दरो दीवार से पर्दा किया।

जख्म छूटेगा खुला कोई न जिसको देखकर,
कह सके ज़ालिम ज़माना आपने धोखा किया।

इक बड़ा एहसाान जिन्दा है अभी इस जिस्म पर,
एक मुर्दे को कभी था आपने जिन्दा किया।

जर्द चेहरा, सर्द लहजा, अलविदा कह मुड़ गये,
कसमसाकर रह गया दिल या ख़ुदा ये क्या किया।

बेसबब पाले रहें ‘विश्वास’ क्यों दिल में मलाल,
आपने-अपनी तरफ़ से जो किया अच्छा किया।
</poem>
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