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Kavita Kosh से
नक्सल की गोली से मृत पति को
कितने मिले हर्जाने के
अँगूठे से छूट रहा स्याही का रंग
बस्ते से चावल
पड़ोसी के मन से संवेदनासम्वेदनाबच्चों के खाली ख़ाली पेट में
नाचते भूख के सियार
चला रहे संसार
स्वच्छ रहे सरकार।सरकार ।
सचिवालय में, थाने-कचहरी में
मूक और निर्वेद पड़े लाखों अँगूठे के निशान
किस जमाने ज़माने के खोए नाम
जब बिसूर-बिसूर रोते,
मुझे लगता कभी मैं भी
ढीरा लगा बैठती,
सुनती उनका मर्मभेदी हाहाकार,
विकल चीखची्ख़-पुकार,
प्रश्न पर प्रश्न बन जाती मैं,
वे उत्तर
कोलाहल में भर जाता हाट-बाट
रोम रोम जाग उठते, समय के।के ।
यह रुलाई बदल जाती
हर अँगूठे की छाप से उठ आते
सलिला मरांडीमराण्डी, दुखी नायकडंबरु डम्बरु तांड़ी, गजानन आचार्यकहते जोर जबरदस्तज़ोर-ज़बरदस्ती से
हम से लिए गए हैं अँगूठे के निशान
हमें लौटा दो
हमारा मैला और बेतरतीब भाग्य
हम मृत नहीं, हम जीवितहैंहम मृत नहीं, हम जीवितहैं !! '''मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित'''
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