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कार्बन / नेहा नरुका

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<poem>
हाड़-मांस का जीता-जागता-बोलता-बिलखता
एक पूरा का पूरा इनसान अचानक
एक दिन मरकर कहाँ चला जाता है ?

कोई तो जगह होगी जहाँ वह जाता होगा
कोई तो रास्ता होगा जो उस जगह तक जाता होगा
फिर क्यों नहीं मालूम किसी को उस रास्ते के बारे में ?
मैं नहीं मानती कि इनसान सबसे आख़िर में मिट्टी हो जाता है
नहीं मानती कि नचिकेता यमराज के पास जाकर
मृत्यु का रहस्य पता करके आया था
मुझे सब बक लगता है

तो मरने के बाद इनसान सबसे आख़िर में
मांस-मिट्टी-राख की यात्रा तय करने के बाद
कार्बन बन जाते हैं क्या ?
रहने लगते हैं आवर्त-सारिणी के सभी तत्वों के साथ
बनाने लगते हैं आपस में मिल-मिलकर
तरह-तरह के यौगिक विपरीत-विपरीत स्वभाव
और शक़्ल वाले

मरने के बाद क्या सब इनसानों के साथ
प्रकृति एक जैसा व्यवहार करती होगी
इतनी विविधताओं के बीच
क्या सबका अन्त एक जैसा होता होगा ?

कोई-कोई फ़ॉसिल बनकर
शताब्दियों के बाद बाहर आता होगा
अपने सम्पूर्ण दस्तावेज़ों के साथ
आकर सिद्ध करता होगा अपने युग की प्रासंगिकता

फिर जब तेल के कुओं पर युद्ध की बात छिड़ती होगी
तो तेल के कुओं से निकलने लगते होंगे मुर्दा
फिर जब ग़रीब देशों को लूटने के दावे किए जाते होंगे
तो हीरे की खदानों से निकलने लगते होंगे मुर्दा

हज़ारों-हज़ारों सालों से पेड़-पौधे जीव-जन्तु-इनसान मर रहे हैं
मरकर कहीं जा रहे हैं
न जाने कहाँ जा रहे हैं ?
किसी ने मेरे कान में धीरे-से फुसफुसाया है,
“कार्बन बनकर तुम्हारे पेट में भी तो जा रहे हैं मुर्दा ।”
</poem>
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