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पुरखिनें / नेहा नरुका

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पुरखे युद्ध करते रहे, घाव लेकर घर लौटे
वीर कहलाए ।
पुरखिनें कारावास में रहीं
बेड़ियाँ पहने-पहने पुरखों के घावों पर मरहम लगाती रहीं
मरहम लगाते-लगाते मर गईं ।

घाव और कारावास में से कोई एक विकल्प चुनना हो
तो तुम क्या चुनोगी?
तुम कहोगी : घाव की पीड़ा से तो कारावास की बेचैनी भली !

पर पुरखिनें कहेंगी : घाव को समय भर देता है
पर समय कारावास को कम नहीं कर पाता ।
समय; कारावास का आदी बना देता है,
फिर स्वतंत्रता से भय लगने लगता है
फिर नींद में भी स्वतंत्रता भयानक स्वप्न के रूप में आती है ।

समय पुरखिनों के कारावास को कम नहीं कर सका
पर समय ने पुरखों के घाव ज़रूर भर दिए ।

घाव और कारावास में से एक चुनना हो तो
तुम कारावास मत चुन लेना, मेरी बच्ची !
माना कि घाव से मर सकते हैं पर
मरकर वीर तो कहलाते हैं न ?
घाव से तड़प-तड़पकर मर जाना, कारावास में रहकर
घुट-घुटकर मरने से सौ गुना बेहतर विकल्प है ।

तुम्हें जिस तरह मरना है मर जाना, मेरी बच्ची !
पर कम से कम मेरी तरह पश्चात्ताप की अग्नि में जलना मत !
</poem>
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