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|रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव
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|संग्रह=यादों के रजनीगंधा / संतोष श्रीवास्तव
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<poem>
सोना पिघलकर
आभूषण बनता है
लोहा गलकर विकास के
रास्ते तय करता है
ईंटें आवां में तप कर
रचती हैं इमारतें
धरती अपनी दरारों में
छिपाए रखती है बीज
पावस की बूंदें
जिसे करती हैं अंकुरित ,
पल्लवित ,पुष्पित

माँ तू कितनी कसौटियों से
जिंदगी भर गुजरती है
गलकर ,पिघलकर,तपकर
रिश्तो की दरारों को पाटती
अपने समर्पण और त्याग की
रिमझिम फुहारों से

माँ मैं तेरा अंश
तेरी हर पीड़ा को धारे
कोशिश करती हूँ
तेरा प्रतिरूप होने की
पर नहीं हो पाती माँ

तेरे आंचल में ईश्वर ने
जो सब्र की हल्दी बाँधी है
वह पूरे घर का पुण्य बन
एक जीवन तो क्या
अनेक जन्मों तक
बुहारती आई है
राह की बाधाओं को

माँ तू अद्भुत है
तुझसा कोई नहीं
</poem>
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