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|संग्रह=यादों के रजनीगंधा / संतोष श्रीवास्तव
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<poem>
फिर आ गया है शिशिर
खिल गए हैं
नरगिस के सुगंधित फूल
शेफाली भी झर रही है
शबनमी बूंदों की
बिछावन पर
बस अब तुम
नहीं हो मेरे साथ

मैं महसूस कर रही हूँ
अपने भीतर के
तेजी से बदलते मौसम को

एक बर्फीलापन
एहसासों पर तारी है
जो मुझ से होकर
गुजर रहा है

कोहरे भरी रात में
कहीं कोई पंछी टेरता है
मेरी रगों में ठंडा लावा
पालथी मारकर बैठ गया है

बर्फीले पर्वत से
एक नदी
मुझ में होकर बहती है
एक समंदर
दूर गर्जना करता है
होता है ऐसा बार-बार

तुम्हारे न होने का
खालीपन ही यथार्थ है
</poem>
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