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29 मार्च {KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|अनुवादक=मनोज पटेल
|संग्रह=
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<poem>
दरअसल, यह कुछ इस तरह से है
खड़ा हूँ मैं राह दिखाती हुई रोशनी में,
भूखे हैं मेरे हाथ, ख़ूबसूरत है दुनिया ।
बाग़ का बड़ा हिस्सा नही पातीं मेरी आँखें
कितने आशापूर्ण हैं वे, कितने हरे-भरे ।
एक चमकीली सड़क गुजर रही है शहतूत के पेड़ों से होकर
क़ैदख़ाने के अस्पताल की खिड़की पर खड़ा हूँ मैं ।
दवाओं की गन्ध नहीं ले पा रहा मैं —
ज़रूर गुलनार के फूल खिल रहे होंगे कहीं आस-पास ।
इस तरह से है यह :
गिरफ़्तारी तो दीगर मसला है,
असल मुद्दा है हार न मानना ।
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : मनोज पटेल'''
</poem>