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|रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव
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|संग्रह=यादों के रजनीगंधा / संतोष श्रीवास्तव
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<poem>
जब आत्मा देह से
प्रस्थान करेगी
देह होगी अनावृत
समा जाएगी अग्नि में
जल,वायु, मिट्टी
और आकाश में

इन तत्वों में समाने से पहले
जमा करना होगा
मोह का भंडार
मोह जो विनाश का कारण है
नहीं होने देगा आत्मा को शांत
देह भी तो विचलित होगी
आत्मा के भटकाव से
इसी आत्मा के देह में रहते
देह को मिले थे
आलिंगन ,स्पर्श,स्नेह
प्रेम का विस्तार
सुखद अनुभूतियाँ
जिंदगी का मनोविज्ञान
प्रकृति से साक्षात्कार
मन को केंद्र में रख
मिला था जीवन का दर्शन
जिसने दी थी पहचान
आत्मा के होने की

मामूली नहीं है देह का
आत्मा को धारण करना
संघर्ष ,विमर्श ,स्पर्श,
आरोहण, प्रत्यारोहण के
गणित से जूझती देह
करती रही भुगतान
आत्मा को धारण करने का

अनावरण होकर
पंचतत्व में
समाने से पहले
पूरी ज़िन्दगी का
सहा -अनसहा,
कहा -अनकहा
देखा -अनदेखा
जमा करना होगा
यहीं धरती के संग्रहालय में

आत्मा की मुक्ति से
देह समा जायेगी
जल के विस्तार में
जहाँ किनारों से लंगर उठा
नौका चल पड़ी है
मां की गोद में नवजात की
किलकारियों को लेकर
</poem>
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